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घड़ी की सुईयां नौ बजकर दो मिनट का समय दर्शा रही थीं। एक तो रात का वक्त ऊपर से सर्दी का मौसम। दिल्ली यूनिवर्सिटी की तरफ जाती सड़क पर उस वक्त आवागमन ना के बराबर था। इक्का दुक्का वाहन तो फिर भी दिखाई दिये जा रहे थे, मगर पैदल यात्रियों का सर्वथा अभाव था। और ये हाल तब था जबकि दिसम्बर का महीना होने के बावजूद दिल्ली में सर्दी का कोई खास जोर नहीं चल पा रहा था।
नार्थ ईस्ट जोन के डीसीपी अमरजीत शुक्ला की गाड़ी डीयू मैट्रो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर आगे यूनिवर्सिटी की तरफ जाती सड़क पर खड़ी थी। आस-पास ना तो कोई दूसरी गाड़ी नजर आ रही थी, ना ही अन्य पुलिसवाले, जैसा कि ऑन ड्यूटी डीसीपी की मौजूदगी में दिखाई दे जाना बेहद आम बात हुआ करती है।
जीप से करीब 40-50 मीटर की दूरी पर एक रेहड़ी खड़ी थी, जिसपर मूंगफली का ढेर लगा हुआ था। उस ढेर को गरम रखने के लिए एक छोटी सी मटकी वहां मौजूद थी जिसमें से निकलता धुआं दूर से ही दिखाई दिये जा रहा था। ये अलग बात थी कि रेहड़ी पूरी तरह लावारिश खड़ी थी, ग्राहक तू दूर, उसका मालिक तक आस-पास कहीं नजर नहीं आ रहा था।
डीसीपी शुक्ला की जीप का रुख उस घड़ी यूनिवर्सिटी की तरफ था और उसके परली तरफ - सड़क किनारे - एक बेहद मामूली सा दिखने वाला युवक खड़ा था। उम्र उसकी पैंतीस से चालीस के बीच कुछ भी रही हो सकती थी। कद लंबा, शरीर बलिष्ठ और रंग थोड़ा सांवला था। उस वक्त वह पाजामा कुर्ता पहने एक शॉल ओढ़कर वहां खड़ा था। 
युवक के दाहिने हाथ में एक साईलेंसर लगी रिवाल्वर मौजूद थी, जिससे अभी भी धुआं निकल रहा था। चेहरे पर बड़े ही हाहाकारी भाव थे और शरीर में हल्की सी कंपन भी हो रही थी। हैरान कर देने वाली बात ये थी कि सर्दी के मौसम में भी वह पसीने से लथपथ दिखाई दे रहा था।
जीप का उसकी तरफ का पिछला दरवाजा खुला हुआ था और वह हाथ में रिवाल्वर लिए लगातार भीतर देखे जा रहा था, अलबत्ता भीतर बैठे किसी शख्स से वहां खड़े होकर बातचीत करता नहीं हो सकता था, क्योंकि उसके होंठों में कोई हरकत नहीं दिखाई दे रही थी।
हां दूर से कोई उस नजारे को देखता तो यही समझता कि वह भीतर बैठे अफसर के साथ गुफ्तगूं कर रहा था। तब शायद उसे पुलिस का मुखबिर भी समझ लिया जाता, क्योंकि उस जैसे मामूली से दिखने वाले शख्स के साथ डीसीपी का और कोई रिश्ता मुमकिन नहीं था।
युवक कुछ देर तक यथास्थिति जीप के भीतर देखता रहा, फिर एकदम से - इस बात की परवाह किये बगैर कि उसे चोट लग सकती थी - जहां का तहां जमीन पर बैठ गया। यूं बैठ गया जैसे उसके भीतर खड़े रहने की ताकत शेष न बची हो।
उसी वक्त मैट्रो स्टेशन की तरफ से एक पुलिस पैट्रोल वैन ने, जो कि इनोवा थी, उधर को टर्न लिया और निरंतर जीप के करीब होती चली गयी। भीतर अतर सिंह और जगजीत सिंह नाम के दो कांस्टेबल बैठे थे, जो इलाके का गश्त लगाकर थाने लौट रहे थे। गाड़ी की रफ्तार बेहद धीमी थी जिससे जाहिर होता था कि उन्हें कहीं भी पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी।
इनोवा जब डीसीपी की जीप के बगल से गुजरने लगी तो बरबस ही अतर सिंह की निगाह उधर चली गयी। उसने जोर से ब्रेक लगाया और अपनी गाड़ी को जीप से थोड़ा आगे सड़क किनारे लगाकर खड़ा कर दिया।
‘‘क्या हुआ?‘‘ जगजीत ने पूछा।
‘‘साहब की गाड़ी खड़ी है।‘‘
‘‘इंचार्ज साहब की?‘‘
‘‘नहीं डीसीपी साहब की।‘‘
‘‘कहां?‘‘ उसने हैरानी से पूछा।
‘‘हमारे ठीक पीछे, चल, चलकर दुआ सलाम कर आते हैं।‘‘
‘‘पागल हुआ है, खामख्वाह की ढोल गले पड़ जायेगी।‘‘
‘‘मतलब?‘‘
‘‘कोई न कोई काम पक्का थमा देंगे, निकल चल।‘‘
‘‘अब नहीं जा सकते।‘‘
‘‘क्यों?‘‘
‘‘इतनी देर में क्या साहब या उनके ड्राईवर की निगाह नहीं पड़ गयी होगी हमारी गाड़ी पर? और अगर पड़ गयी होगी तो ये सोचकर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा कि उनकी यहां मौजूदगी का पता लग चुकने के बावजूद हम उन्हें अनदेखा कर के आगे बढ़ गये।‘‘
‘‘मरवा दिया न साले - जगजीत झुंझलाता हुआ बोला - ठीक है चल, अब और कर भी क्या सकते हैं?‘‘ कहने के बाद वह दरवाजा खोलकर गाड़ी से नीचे उतर आया।
दूसरी तरफ से अतर सिंह भी उतरा, तत्पश्चात दोनों डीसीपी की जीप की तरफ बढ़ चले, जो कि बामुश्किल दस कदमों की दूरी पर खड़ी थी।
पिछले दरवाजे के करीब पहुंचकर दोनों ने एक साथ एड़ियां खटकाते हुए सेल्यूट किया और तनकर खड़े हो गये, इस इंतजार में कि साहब विंडो ग्लास डाउन कर के उनके अभिवादन के जवाब में कुछ न कुछ तो जरूर कहेंगे।                                                                                                                                                                                                       
मगर ना तो विंडो ओपन की गयी ना ही भीतर से आती कोई आवाज उनके कानों तक पहुंची।
दोनों ने कुछ क्षण इंतजार किया, फिर जगजीत ने ये सोचकर गाड़ी के भीतर झांका कि कहीं वह खाली तो नहीं खड़ी थी।
अगले ही पल जोर की सिसकारी भरता वह दो कदम पीछे हट गया।
‘‘क्या हुआ?‘‘ अतर ने पूछा।
‘‘साहब तो मरे पड़े हैं बहन चो...।‘‘ वह हकबकाया सा बोला।
सुनकर बुरी तरह हड़बड़ाये अतर सिंह ने अपनी आंखें विंडो ग्लास से सटाकर भीतर देखा तो शुक्ला की खून अलूदा लाश उसे साफ दिखाई दे गयी। 
गहन उत्कंठा के हवाले उसने दरवाजे का हैंडल पकड़कर जोर से अपनी तरफ खींचा। 
दरवाजा नहीं खुला।
‘‘ये तो बंद पड़ा है।‘‘
‘‘मैं दूसरी तरफ जाकर देखता हूं।‘‘ कहता हुआ जगजीत सामने से जीप का घेरा काटकर परली तरफ पहुंचा तो वहां घुटनों में सिर दिये बैठे युवक पर उसकी निगाह पड़ी।
मगर उसने कोई खास नोटिस नहीं लिया क्योंकि उसकी आंखों के सामने तो अभी भी डीसीपी की रक्तरंजित लाश ही तैर रही थी।
युवक जीप के खुले पड़े गेट के ठीक नीचे बैठा था इसलिए जगजीत को भीतर झांकने के लिए उसके पीछे जाकर खड़ा होना पड़ा। आगे डीसीपी की लाश से होती उसकी निगाहें ड्राईवर की तरफ चली गयीं, जो कि खुद भी खोपड़ी में गोली खाये पड़ा था।
‘‘इधर आ जा अतर।‘‘ वह जोर से बोला फिर घूरकर युवक को देखा, फिर उसे उठकर खड़ा होने के लिए कहने जा ही रहा था कि उसके हाथ में थमी गन ने जगजीत को बुरी तरह बौखलाकर रख दिया।
बैड लक / शीघ्र प्रकाशित

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