SANTOSH PATHAK
Author | Mystery writer
A new world of crime fiction
एक कत्ल दो सस्पेक्ट और दोनों ही एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे कि हत्या दूसरे ने की है। कौन झूठ बोल रहा था और कौन सच, उसका पता लगाना आसान काम नहीं था। ना ही पुलिस उन दोनों को एक साथ कत्ल के इल्जाम में गिरफ्तार कर सकती थी, क्योंकि उनमें से एक का दर्जा आई विटनेस का था। नतीजा ये हुआ कि पूरा मामला मकड़ी के जाले की तरह निरंतर उलझता चला गया। पुलिस के सामने सबसे बड़ी अड़चन ये कि दोनों ही सस्पेक्ट्स हाई सोसाईटी के जाने पहचाने चेहरे थे, यानि ऐसे लोग जिनपर चाहकर भी जोर आजमाईश नहीं की जा सकती थी, उनके हलक में हाथ डालकर अपने मतलब की जानकारी नहीं उगलवाई जा सकती थी। ऐसे में कातिल कौन है? उस बात का पता लगा पाना आसान काम तो हरगिज भी नहीं था।
‘द कॉन्टिनेंटल‘ एक ऐसा होटल था, जहां गेट कीपर से लेकर मालिक तक सब नोन क्रिमिनल थे। ड्रग्स, हथियार, ह्यूमन ट्रैफिकिंग, मनी लांड्रिंग! मतलब ऐसा कोई गैरकानूनी धंधा नहीं था जिसमें उन लोगों ने अपने पांव न पसार रखे हों। कोढ़ में खाज ये कि उन्हें एक ऐसी राजनैतिक पार्टी का संरक्षण प्राप्त था, जिसका पोषण खुद देश की मिलेट्री कर रही थी। ऐसे हद से ज्यादा खतरनाक लोगों के साथ टकराना कम से कम किसी अकेले पुलिस ऑफिसर के बस की बात को हरगिज भी नहीं थी, और ऑफिसर भी कैसा? जो अपने 15 साल के बेटे की तलाश में भटकता हुआ इंडिया से म्यांमार जा पहुंचा था। टकराव फिर भी होकर रहा, एक और सौ के बीच जंग छिड़ गयी, ऐसी जंग जिसके कोई मायने नहीं दिखाई दे रहे थे, जो पूरी तरह एकतरफा जान पड़ती थी। देखना तो बस ये था कि पराये मुल्क में सब इंस्पेक्टर शशांक हजारिका कितने दिनों तक सर्वाइव कर पाता था।
डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल के हत्यारे की तलाश में पुलिस ने जमीन आसमान एक कर दिया, मगर सुराग तो दूर कोई ऐसी वजह तक नहीं तलाश पाये जिसे बियॉन्ड एनी डाउट डॉक्टर के कत्ल का मोटिव मान लिया जाता, हत्यारे को पकड़ना तो दूर की बात थी।
फिर जैसे चमत्कार हो गया। साल भर बाद पुलिस ने स्कूल टीचर अमरजीत राय की हत्या के आरोप में अखिल गुप्ता नाम के एक युवक को हिरासत में लिया, और मीडिया के सामने इस बात की घोषणा कर दी कि डॉक्टर बरनवाल का कत्ल भी उसी ने किया था।
मगर सच तो कुछ और ही था, एक ऐसा सच जिसने आगे चलकर केस के इंवेस्टिगेशन ऑफिसर को खून के आंसू रोने पर मजबूर कर दिया। एक ऐसा सच जिसने पुलिस की कार्यप्रणाली पर बहुतेरे सवाल खड़े कर दिये। एक ऐसा सच जिसने बाद में कई अन्य हत्याओं की स्क्रिप्ट लिख डाली।
एक डॉक्टर जो रोमांस में डूबा रहता था।
एक विधायक जो खुद को खुदा समझता था।
एक अजीबो गरीब डिटैक्टिव जो थोड़ी सनकी भी थी।
एक सब इंस्पेक्टर जो फूँक फूँक कर कदम रखता था।
ऐसे चार लोग जब एक ही मामले से जुड़ गए तो देखते ही देखते कत्ल का एक मामूली सा केस मकड़ी के जाले की तरह उलझता चला गया।
भूपेंद्र जैन एक बड़ा नाम था। रुतबा और रईसी दोनों उसे विरासत में हासिल हुई थी। मगर था हद दर्जे का गुस्सैल और खब्ती इंसान, जो घर की बहुओं पर तरह तरह की पाबंदियाँ लगाये बैठा था। उसकी पुत्रवधुएँ क्या पहनेंगी और क्या नहीं पहनेंगी, उसका फैसला भी उसके बेटे नहीं बल्कि वह खुद किया करता था। बीमारियाँ उसके शरीर में स्थाई ठिकाना बना चुकी थीं, या यूँ कह लें कि वह महज अपनी दौलत के बूते पर जी रहा था। ऐसी जिंदगी जिसमें कभी भी उसकी चल चल हो जाना तय था। कायदे से ऐसे इंसान की मौत पर सवाल नहीं उठने चाहिए थे, क्योंकि मौत की वजह कॉर्डियक अरेस्ट बताई जा रही थी। लेकिन सवाल तो उठे, इसलिए उठे क्योंकि उसकी मौत कोई आम मौत नहीं थी। वह बंद कमरे में मरा था, पेट बुरी तरह फटा हुआ था और शरीर के वाईटल ऑर्गन्स चिंदी चिंदी होकर यूँ बिखरे पड़े थे, जैसे किसी ने बारूद लगाकर उड़ा दिया हो। अब इंवेस्टिगेट करने के लिए तीन सवाल थे। पहला, अगर उसकी मौत कॉर्डियक अरेस्ट से हुई थी, तो पेट फटा हुआ क्यों पाया गया? दूसरा, अगर कत्ल किया गया था तो हत्यारा कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करने में कैसे कामयाब हो गया? तीसरा, उसकी जान ली तो आखिर ली किसने? एक ऐसा केस जिसमें पुलिस और फॉरेंसिक दोनों लगभग हार मान चुके थे। और जब किसी की समझ में यही नहीं आ रहा था कि मरने वाले के पेट में उतना भयानक विस्फोट कैसे हुआ, तो कातिल तक पहुँच पाना भला कैसे मुमकिन हो पाता। फिर क्या हुआ? क्या भूपेंद्र जैन की रहस्मयी मौत पर पड़ा पर्दा कभी उठ पाया? या वह मामला हमेशा हमेशा के लिए पुलिस के अनसुलझे केसों की फाईल में दफ्न होकर रह गया? जानने के लिए पढ़ें लॉक्ड रूम मिस्ट्री ‘द इम्पॉसिबल मर्डर’
‘स्काई क्रीपर्स इंफ्रॉस्ट्रक्चर‘ एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी थी, जिसके दो पार्टनर्स में से एक अनवर खान की हत्या कर दी गई। पुलिस को पूरे मामले में किसी शूटर की इंवॉल्वमेंट का पता तो फौरन लग गया, मगर ये जानने में कि घटना के पीछे असल में किसका हाथ था, उनके पसीने छूट गये, क्योंकि मकतूल की गुजिश्ता जिंदगी में एक से बढ़कर एक राज दफ्न थे। वह रईस था मगर नौकर के नाम पर बस एक पठान को अपने साथ रखे था, जो बावर्ची से लेकर उसकी बॉडी को गार्ड करने जैसे सारे काम खुद किया करता था। पठान साढ़े छह फीट के कद और 120 किलो वजन वाला दैत्याकार शख्स था, जिसपर पुलिस का जोर नहीं चल पा रहा था। जबकि उन्हें यकीन था कि अनवर खान की हत्या का राज उसी के सीने में दफ्न था। दूसरी तरफ साजिद पठान ये जानने के लिए दर बदर भटकता फिर रहा था कि उसके आका की हत्या किसके इशारे पर की गयी थी। और उस मामले में वह किसी को भी बख्शने को तैयार नहीं था, भले ही वह कितना भी बड़ा शख्स क्यों न निकल आता। नतीजा ये हुआ कि हत्यारे और पुलिस के बीच की लुकाछिपी असल में पुलिस और साजिद पठान के बीच छिड़ी जंग में तब्दील होती चली गयी, जिसके नतीजे अच्छे तो नहीं ही होने वाले थे।
इंटरनेशनल हॉस्पिटल ऐंड हॉर्ट इंस्टीट्यूट की लिफ्ट में एक महीने के भीतर तीन लाशें बरामद होना कोई इत्तेफाक नहीं हो सकता था। मगर पुलिस के सामने मजबूरी ये थी कि जान गंवाने वाले तीनों लोग अपनी अपनी बीमारी के शिकार बने थे। कोई कॉर्डियक अरेस्ट से अपनी जान गंवा बैठा, तो कोई ब्रेन हैमरेज से। वो तो जैसे बस मरने के लिए ही लिफ्ट के अंदर सवार हुए थे। फिर अचानक ही वह अस्पताल सुर्खियों में आ गया। तब जब किसी ने उसे बम से उड़ा देने की धमकी जारी कर दी। पुलिस को लगता था वह महज धमकी थी। हॉस्पिटल प्रशासन उसे अस्पताल को बदनाम करने की कोशिश बता रहा था। जबकि आशीष गौतम की निगाहों में वह एक ऐसी कोशिश थी जिससे हत्यारा अपनी तरफ से ध्यान भटकाना चाहता था। मगर रिस्क लेने को तो कोई तैयार नहीं था, लिहाजा आनन-फानन में मरीजों को वहां से शिफ्ट किया जाने लगा और पूरे हॉस्पिटल को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया। यूं कि अब वहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। राजधानी हाई अलर्ट पर थी, पुलिस अधिकारी बौखलाये हुए थे, और हत्यारा कहीं दूर बैठा अपने उस करतब पर ठहाके लगा रहा था। फिर एक ऐसा धमाका हुआ जिसने हर किसी को हैरान कर के रख दिया। और उसे करने वाला हत्यारा नहीं बल्कि ‘खबरदार‘ का चीफ रिपोर्टर आशीष गौतम था।
हवालात में बंद एक कैदी चींख चीखकर खुद को बेकसूर बता रहा था, जबकि पुलिस उसपर कोल्ड ब्लडेड मर्डर का इल्जाम लगा रही थी। मगर हैरानी की बात तो ये थी कि अपनी बेगुनाही के हक में वह जो कुछ भी कहता अगले ही पल उसकी बात झूठी पड़ जाती थी। और कैदी भी कैसा, जो नौजवान था, हैंडसम था, दौलतमंद था, मगर बदनीयत था। जिसका बाप सात सालों से जेल में बंद रेप ऐंड मर्डर की सजा भुगत रहा था। ऐसे इंसान के साथ पुलिस को कोई हमदर्दी होती भी तो भला क्यों होती।
एक कत्ल और छह सस्पेक्ट्स, जो दो हिस्सों में बंटे हुए थे। पहली पार्टी में पांच लोग थे, जबकि दूसरी में महज एक, वह भी लड़की जिसका कहना था कि कत्ल उन पांचों ने मिलकर किया था। जबकि वह थे कि चींख चींख कर लड़की को कातिल करार दे रहे थे। नतीजा ये हुआ कि पुलिस ने सबको उठाकर हवालात में डाल दिया। अब उनके सामने सबसे बड़ा चैलेंज था इस बात का पता लगाना कि दोनों पक्षों में से सच कौन बोल रहा था।
क्रिमिनोलॉजी की पढ़ाई कर रहा प्रशांत सरकार बेहद बड़बोला युवक था, ऐसा युवक जिसकी ‘पहले तोलो फिर बोलो‘ में कोई आस्था नहीं थी, यानि जो मन में आता बक देता।
समस्या तब उत्पन्न हुई जब उसके मुंह से निकली हर बात सच होने लगी। दिन में वह जो कुछ भी कहता रात में घटित हो जाता। कैसे हो जाता था ये किसी को नहीं पता था।
एक एक कर के तीन कत्ल हो गये और तीनों के ही बारे में वह अपनी गर्लफ्रैंड के साथ एडवांस में डिस्कस चुका था। ऐसे में पुलिस भला उस बात को इत्तेफाक कैसे मान सकती थी। मतलब प्रशांत सरकार का कत्ल के इल्जाम में जेल पहुंच जाना महज वक्त की बात थी।
‘पेन किलर डॉट कॉम’ प्रत्यक्षतः एक डिटेक्टिव एजेंसी थी, जिनके पास दक्ष जासूसों की पूरी टीम मौजूद थी, लेकिन पर्दे के पीछे का सच कुछ और था। जासूसी की आड़ में स्याह को सफेद कर दिखाने में माहिर उस टीम के पास हर दर्द का इलाज था, जिसकी फीस अक्सर करोड़ों में हुआ करती थी, इसलिए कोई आम आदमी तो उनके ऑफिस में कदम रखने की भी जुर्रत नहीं कर सकता था। आप चोर हैं, डकैत हैं, रेपिस्ट हैं, मर्डरर हैं कोई बात नहीं, ‘पेन किलर’ को हॉयर की कीजिए, उनकी मोटी फीस चुकाईये और निश्चिंत हो जाइये। फिर आपका दर्द उनका सिरदर्द बन जायेगा, और आप साफ बचा लिए जायेंगे। चाहे उसके लिए कोई लाश गायब करनी पड़े, या किसी को बलि का बकरा ही क्यों न बनाना पड़ जाये, उनकी निगाहों में सब जायज था। क्लाइंट को बचाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते थे, कानून की बेशुमार धारायें भंग कर सकते थे, तभी तो उनका स्लोगन था ‘एवरीथिंग इज अंडर कंट्रोल’ ऐसी फसादी एजेंसी को कभी न कभी तो पुलिस के राडार पर आना ही था। आई भी, मगर सवाल ये था कि क्या पुलिस वाकई उनका कुछ बिगाड़ सकती थी?
स्नेहलता यादव की गुमशुदगी का मामूली सा दिखाई देने वाला केस अचानक ही मेरे जी का जंजाल बन गया। हालात, जिनपर मेरा कोई काबू नहीं था, यूं बिगड़ते चले गये कि लड़की का पता लगाने की बजाये मुझे खुद को जेल जाने से बचाने की कवायद में जुटना पड़ा। पुलिस की निगाहों में मैं रेपिस्ट था, खूनी था, और वह बात साबित हो जाना महज वक्त की बात थी, क्योंकि मेरे खिलाफ सबूतों का अंबार लगा हुआ था, और सबूत भी ऐसे जो चींख चींखकर कह रहे थे कि अपराधी मैं ही था। सबसे ज्यादा डैमेजिंग बात मेरे लिए ये थी कि केस की इंवेस्टिगेशन ऑफिसर इंस्पेक्टर गरिमा देशपांडे मेरे खिलाफ थी, इतना खिलाफ कि उसका वश चलता तो अदालत में गुनाह साबित होने से पहले ही मुझे फांसी के फंदे पर लटका देती। ऐसे मुश्किल हालात में सच्चाई की तह तक पहुंच पाना कोई आसान काम नहीं था। मगर पहुंचना फिर भी जरूरी था, क्योंकि बलि का बकरा बनने का मेरा कोई इरादा नहीं था।
हालात बद से बद्तर होते जा रहे थे। अपराधियों का हर कदम कामयाबी की नई गाथा लिख रहा था, तो वहीं सुरक्षा एजेंसियाँ निरंतर हार का मुँह देख रही थीं। पनौती और सतपाल उन दो पाटों के बीच पिस रहे थे। षड़्यंत्रकारी उनकी लाश गिराने को दृढ़संकल्पित थे तो एनआईए उनपर यकीन करने को तैयार नहीं थी। पनौती मामले की तह तक पहुँचने की जिद पकड़े बैठा था तो सतपाल किसी भी हाल में उसका साथ नहीं छोड़ना चाहता था। मगर उनकी राह आसान तो बिल्कुल भी नहीं थी, क्योंकि इस बार उन्हें किसी कातिल को नहीं खोजना था, बल्कि मुकाबला ऐसे लोगों से था जो देश के पीएम और प्रेसिडेंट को खत्म करने की धमकी जारी कर चुके थे। बात वहाँ तक भी सीमित रह जाती तो शायद दोनों के लिए कुछ कर गुजरना आसान हो जाता, मगर दुश्मन के चक्रव्यूह को बेध पाना उस वक्त मुश्किल हो उठा जब उसने संजना को अपना मोहरा बना लिया। फिर हालात ने कुछ ऐसी करवट बदली कि उन तीनों के साथ-साथ अवनी को भी उस दावानल में कूद जाना पड़ा, जो सबकुछ जलाकर भस्म कर देने वाली थी। अब या तो चारों मिलकर दुश्मन के चक्रव्यूह को तोड़ने में कामयाब हो जाते, या उसमें फँसकर अपनी जान गवाँ बैठते, क्योंकि मरो या मारो के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था।
युद्ध आरंभ हो चुका था, घात-प्रतिघात का खेल जोरों पर था। कुछ चेहरों से नकाब उतर चुके थे, तो कुछ के मुखौटे हटने अभी बाकी थे। एक तरफ एनआईए और आईबी जैसी एजेंसियाँ दुश्मन को नेस्तनाबूद करने की कवायद में जुटी हुई थीं, तो दूसरी तरफ विशाल, सतपाल, संजना और अवनी कमर कस के मैदान में कूद पड़े थे। बस किसी को ये नहीं मालूम था कि उनका मुकाबला किसके साथ चल रहा था। ऐसे में दुश्मन पर जीत हासिल कर पाना असंभव की हद तक कठिन काम बनकर रह गया…. महाभारत शृंखला की तीसरी और अंतिम कड़ी ‘कुरुक्षेत्र’
देश पर आतंकी हमले का खतरा मंडरा रहा था। अलकायदा कमांडर सैफ अल अदल ने खुलेआम ये धमकी जारी की थी कि वह हिंदुस्तान की सड़कों को लाशों से पाट देगा। उसके निशाने पर देश की आम जनता तो थी ही, साथ ही वह कई दिग्गज नेताओं, पीएम और यहाँ तक कि प्रेसिडेंट को खत्म करने के मंसूबे बांधे बैठा था। मगर क्या वह सब उतना ही आसान था जितना कि किसी न्यूज चैनल को एक धमकी भरी वीडियो भेज देना? यह एक ऐसा मामला था, जिसका लोकल पुलिस से कोई लेना-देना नहीं था, क्योंकि एनआईए और आईबी जैसी एजेंसियाँ दुश्मन को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कस के मैदान में उतर चुकी थीं, बावजूद इसके पनौती की टाँग उसमें जा फँसी तो उसकी वजह बस इतनी थी कि वह और संजना सतपाल के बुलावे पर एक ऐसे समारोह में शिरकत करने पहुँच गये, जहाँ हमलावर पहले से अपना जाल बिछाये बैठे थे।
अपने केयरटेकर अरमान अली की हत्या के आरोप में सुयश रस्तोगी हवालात में बंद था। पुलिस उसे हत्या का मामला बता रही थी, जबकि विवेक आचार्य उसे दुर्घटना करार देने पर तुला था। फिर केस में एक चश्मदीद गवाह निकल आया, जिसका दावा था कि उसने अपनी आंखों के सामने अरमान को छत से नीचे गिरते देखा था, नतीजा ये हुआ कि केस परत दर परत मकड़ी के जाले की तरह उलझता चला गया। अब सबसे बड़ा सवाल था हत्या का मोटिव, जिसपर कोई भी एकमत नहीं हो पा रहा था। ऐसे में सच्चाई की तह तक पहुंचना आसान काम नहीं था।
हत्या और दुर्घटना के बीच लटकती एक लाश की सनसनीखेज दास्तान।
हालात बेकाबू थे, साथ देने वाले अधिकतर हाथ कट चुके थे, मगर जंग अभी जारी थी। एक ऐसी लड़ाई जिसमें छोटका बिहारी ने अश्विन पंडित को बैक फुट पर पहुंचा दिया था। कुछ बचा रह गया था तो वह था पंडित का हौसला, जिसपर छोटका का कोई जोर न पहले चल सका था, ना ही अब चलता दिखाई दे रहा था। मगर क्या सिर्फ हौसले के बूते पर इतनी बड़ी जंग जीती जा सकती थी?
जानने के लिए पढ़ें ‘सर्वनाश‘।
अश्विन पंडित और छोटका बिहारी के टकराव का आखिरी किंतु भयानक अध्याय।
जंग! जिसे रोकने के लिए अश्विन पंडित और एमएलए गजानन सिंह ने अपनी तरफ से कोई कसर उठा नहीं रखी, वह अब छिड़ चुकी थी। सुलह की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुईं। जिस किसी के दर पर गजानन सिंह ने मदद के लिए झोली फैलायी, उसी ने खाली हाथ लौटा दिया। ऐसे में मुकाबला करने के अलावा अश्विन पंडित के पास दूसरा विकल्प भी क्या था?
बेगूसराय की धरती इंसानी खून से सराबोर हो रही थी, मगर छोटका बिहारी की रक्त पिपाशा शांत होने का नाम नहीं ले रही थी। वह लाशें गिरा रहा था, ठहाके लगा रहा था और अश्विन पंडित खून के आंसू रो रहा था। सही मायने में कहा जाये तो वह एक ऐसी जंग लड़ रहा था, जिसमें उसकी हार सुनिश्चत थी।
ऑफिस से अपने घर के लिए रवाना हुआ अरविंद तलवार रास्ते में यूं लापता हो गया जैसे उसे जमीन निगल गयी हो। वह बड़ा बिजनेसमैन था इसलिए उसका गायब हो जाना अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी, ऐसी घटना जिसने पूरे देश को हिलाकर रख देना था। मगर हैरानी की बात ये रही कि कहीं कोई हड़कंप नहीं मचा, ना तो पुलिस ने कोई चुस्ती फुर्ती दिखाई ना ही उस घटना को मीडिया की ही कोई खास अटैंशन हासिल हो पाई। और सबसे बड़ी बात ये कि उसकी गुमशुदगी को पूरे पांच दिनों तक छिपाकर रखा गया था।
ऐसे में कई सवाल मुंह बाये खड़े थे -
क्या अरविंद अपनी मर्जी से कहीं चला गया था?
क्या वह किसी साजिश का शिकार हो गया था?
क्या वह मर चुका था?
जबकि पुलिस थी कि पांच महीनो बाद भी अभी उस मर्सडीज को तलाशने में जुटी हुई थी जिसमें अरविंद आखिरी बार देखा गया था।
डीसीपी अमरजीत शुक्ला की हत्या के तुरंत बाद मुलजिम रामखेलावन को बमय हथियार घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस को उसके कातिल होने पर जरा भी संदेह नहीं था क्योंकि सारे सबूत और तमाम परिस्थितियां उसके खिलाफ थीं। ऐसे में उसका जेल चले जाना महज वक्त की बात थी।
दूसरी तरफ वंश वशिष्ठ का मन ये मानने को तैयार नहीं हो रहा था कि एक मामूली सा आदमी, जो अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए सड़क पर मूंगफली बेचा करता था, पुलिस के एक बड़े अफसर का कत्ल कर बैठा। फिर क्या था पर्दाफाश की पूरी टीम सच का पता लगाने के लिए मैदान में कूद पड़ी।
क्या रामखेलावन ही कातिल था, या वह किसी साजिश का शिकार हुआ था?
जानने के लिए पढ़ें ‘द इनोसेंट’
‘राईट टाईम टू किल’ और ‘कौन’ के बाद वंश वशिष्ठ सीरीज का तीसरा और बेहद उलझा हुआ कथानक, जो आपको पृष्ठ बदलने को मजबूर कर देगा।
पुलिस की तमाम कोशिशें फेल हो रही थीं, हत्यारा आजाद घूम रहा था। किसी सूत्र की तलाश में विराट राणा और सुलभ जोशी भागे भागे फिर रहे थे। जो सामने था वह सिवाय प्रेतलीला के और कुछ नहीं दिख रहा था, जबकि उनका मन उस बात को कबूल करने को तैयार नहीं था। एक तरफ पापियों को इंटेरोगेट कर पाना नामुमकिन नजर आ रहा था, तो दूसरी तरफ केस को सॉल्व करने के लिए उनपर तगड़ा दबाव बनाया जा रहा था। हद तो तब हो गयी जब बाकी बचे पापियों में से दो और लोग पिशाच का शिकार बन गये।
एक अबूझ पहेली जो लगातार उलझती जा रही थी।
आठ दोस्त जो एक दूसरे को पापी कहकर बुलाते थे, अचानक ही बस सात रह गये, क्योंकि राहुल हांडा को कोई चुड़ैल उठा ले गयी। बात यकीन के काबिल नहीं थी, पुलिस तो हरगिज भी नहीं करने वाली थी, मगर दो महीने बाद फिर से एक वैसी ही घटना घटित हुई और बाकी बचे दोस्तों में से मधु कोठारी को कोई पिशाच अपने साथ लेकर चला गया। हद तो तब हो गयी जब दोनों ही मामलों में पुलिस को साफ-साफ किन्हीं पैरानार्मल एक्टीविटीज का दखल दिखाई देने लगा। हर तरफ भूत प्रेतों के चर्चे, ना समझ में आने वाली बातें और हैरान कर देने वाला घटनाक्रम। ऐसे में विराट राणा के लिए सच्चाई की तह तक पहुंच पाना आसान नहीं था।
विकास सैनी एक ऐसा हौव्वा था जिससे कलपुरा और उसके आस-पास के इलाके में हर कोई खौफ खाता था। हद दर्जे का खतरनाक और घटिया आदमी, जो किसी की बहन बेटी उठवा सकता था, तो गांव की किसी औरत को अपनी कीप बनकर रहने को मजबूर भी कर सकता था।
ऐसे आदमी से उसी के इलाके में पंगा लेना क्या कोई मामूली काम था, मगर मैंने लिया, क्योंकि आदत और प्रोफेशन दोनों की मजबूरी थी। लेकिन बाद में जो कुछ घटित हुआ उससे मैं पनाह मांग गया। एक वक्त वह भी आया जब मुझे लगने लगा कि कलपुरा का वह केस मेरी जिंदगी का आखिरी असाइनमेंट बनकर रह जायेगा।
ब्लैकमेलिंग का एक मामूली सा दिखने वाला केस अचानक ही बुरी तरह उलझकर रह गया। एक के बाद एक कत्ल होने लगे। किसी का कोई सिर पांव मेरी समझ में नहीं आ रहा था। ना ही मेरे मौजूदा केस से हत्या की उन वारदातों का कोई लेना देना दिखाई देता था। मगर इस बात में कोई शक नहीं था कि मैं हत्यारे के जाल में लगातार उलझता जा रहा था।
वह लाशें बिछा रहा था और मैं बरामद कर रहा था। कातिल मुझसे बस एक कदम ही आगे आगे चल रहा था, बावजूद इसके मैं उसके किरदार से अंजान था, कोई हिंट तक नहीं था कि वह कौन था। फिर अचानक ही दिमाग की बत्ती जल उठी, मगर अफसोस इस बात का था कि तब तक मैं खुद भी हत्यारे की गोली का शिकार हो चुका था।
सत्य प्रकाश अंबानी अधेड़ावस्था की तरफ अग्रसर बेहद खब्ती, चिड़चिड़ा किंतु दौलतमंद शख्स था, जबकि बीवी छब्बीस साल की बेहद खूबसूरत और अल्ट्रा मॉड युवती थी।
शौहर को बीवी का अत्याधुनिक रहन-सहन फूटी आंख नहीं भाता था, यहां तक कि उसे वेश्या का संबोंधन देने में भी उसे कोई गुरेज नहीं था। ऐसे में कहानी सीधी और सरल कैसे बनी रह सकती थी।
दोनों के बीच की खाई निरंतर गहरी होती गयी, रिश्ते खंड खंड होकर बिखरते चले गये। फिर एक वक्त ऐसा भी आया जब बीवी की सहनशक्ति जवाब दे गयी।
तत्पश्चात रचा गया सत्य प्रकाश अंबानी का मर्डर प्लॉन, एक ऐसा प्लॉन जिसमें पंगा पड़ने की कोई उम्मीद नहीं थी, मगर पड़ा, और ऐसा पड़ा कि सब भौंचक्के रह गये।
एक के बाद एक कत्ल होने लगे, पुलिस के साथ-साथ ‘द वॉचमैन’ की टीम भी कातिल को पकड़ने के लिए मैदान में उतर गयी, मगर हत्यारे को पकड़ना तो दूर, कत्ल के मोटिव पर भी कोई एक राय कायम नहीं कर पा रहा था।
पांच मुर्दे जो दशकों से जमीन के भीतर दफ्न ताबूतों में आराम फरमा रहे थे, अचानक ही एक रोज बाहर आ गये। ऐसे में हंगामा मचना तो लाजमी ही था, मगर असल कोहराम तब शुरू हुआ जब सब इंस्पेक्टर अभिलाष अवस्थी को पता लगा कि जो लाशें बरामद हुई थीं, वह पांच अंडर कवर जासूसों की थीं।
बात यहां तक भी सीमित रह जाती तो शायद और जानें नहीं गयी होतीं, मगर एक शख्स ऐसा भी था जो किसी भी कीमत पर उन पांचों की हकीकत को दुनिया के सामने नहीं आने देना चाहता था।
फिर शुरू हुआ राज को राज बनाये रखने का ऐसा घिनौना खेल जिसमें कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे, तो कई मरते मरते बचे, यहां तक कि इंवेस्टिगेशन ऑफिसर भी उन खतरनाक परस्थितियों से अछूता नहीं रह पाया।
ताकत के मद में ऐंठे एमपी प्रचंड सिंह राजपूत ने मतवाल चंद को पीटते वक्त सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वह हरकत उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित होने वाली थी, ऐसी भूल जो उसकी सल्तनत को पूरी तरह तबाह और बर्बाद कर के रख देगी।
किसी बाहुबली के साथ जंग लड़ना आसान काम नहीं था। वह भी तब जबकि मतवाल का थाना इंचार्ज प्रचंड सिंह के खिलाफ मारपीट का मामला तक दर्ज करने को तैयार नहीं था।
आखिरकार उसने आर-पार की लड़ाई लड़ने का फैसला किया, एक ऐसी लड़ाई जिसके बारे में कोई नहीं जानता था कि उसका अंत कहां जाकर होने वाला था।
शह और मात का खेल चल निकला, कौन जीतेगा और कौन हारेगा इसका अंदाजा लगा पाना बेहद मुश्किल था।
अब देखना ये था कि क्या अकेला चना भांड फोड़ सकता था?
एक बड़ा बिजनेसमैन, जिसपर अपनी बीवी कि हत्या का इल्जाम था।
एक बेरोजगार युवक जो अपनी गर्ल फ्रेंड के जरिये करोड़पति बनने के सपने देख रहा था।
एक लड़की जो अपने मन कि भड़ास निकालने के लिए झूठ पर झूठ बोले जा रही थी।
एक सब इंस्पेक्टर जो अपने एस.एच.ओ. की निगाहों में अव्वल दर्जे का गधा था।
एक परिवार जिसमें कोई किसी का सगा नहीं था।
ऐसे नकारा और बदनीयत लोगों का जब केस में दखल बना तो मामला सुलझने कि बजाय निरंतर उलझता ही चला गया।
'गुनाह बेलज्जत'
एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री जिसने पूरे पुलिस डिपार्टमेंट को हिलाकर रख दिया।
कमरे के बीचोंबीच एक निर्वस्त्र जनाना लाश पड़ी थी। इर्द गिर्द फैला खून अब पपड़ियों की शक्ल अख्तियार करता जा रहा था। बाईं तरफ की दीवार पर मरने वाली के खून से एक बड़ा सा गोलाकार धब्बा बनाया गया था, जिसके नीचे बस एक शब्द लिखा था ‘निशाचर’! क्या इन बातों का कोई खास अर्थ बनता था? या हत्यारा पुलिस को भटकाने की कोशिश कर रहा था?
सिलसिलेवार हत्यायों का एक ऐसा केस जो दरोगा निरंकुश राठी के गले की फांस बनकर रह गया था। उसकी नौकरी दांव पर लगी थी और कातिल था कि उसे लगातार छकाये जा रहा था।
शेफाली बर्मन बेहद खूबसूरत, बिंदास और अल्ट्रा मॉर्डन लड़की थी। ऐसी लड़की जिसका बाप स्मगलर था, गैंगेस्टर था। ऐसी लड़की जिसपर इल्जाम था कि उसने अपनी दो सहेलियों के साथ मिलकर एक नाबालिग लड़के के साथ ना सिर्फ कुकर्म किया था, बल्कि बाद में उसकी गला रेत कर हत्या भी कर दी थी।
यह अपने आप में अनोखी वारदात थी, ऐसा जुर्म जो हिन्दुस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता। इसलिए हर कोई हैरान था, किसी को पुलिस के निकाले गये नतीजे पर यकीन नहीं आ रहा था। मगर कत्ल हुआ था तो जाहिर है कातिल ने भी कहीं न कहीं तो मौजूद होना ही था।
सूर्यकांत संस्कारी हिंदी क्राईम फिक्शन का एकमात्र ऐसा लेखक था जो करोड़ों में रॉयल्टी वसूलता था। पब्लिशर्स उसे छापने को मरे जाते थे तो प्रोड्यूसर उसकी किताबों के विजुअल राईट्स लेने को बेताब थे।
जैसी मिस्टीरियस किताबें वह लिखता था, वैसे ही रहस्यमयी ढंग से एक रात अपनी जान से हाथ धो बैठा। तब पता चला कि दुनियां भर में लाखों फैंस का धनी सूर्यकांत निजी जीवन में कितना तनहा था।
किसी को परवाह नहीं थी कि उसकी हत्या क्यों हुई, किसने की। उल्टा हर कोई ये जोड़ घटाव करने में व्यस्त था कि संस्कारी की मौत से उसे क्या और कितना फायदा पहुंचा था।
फिर भी किसी की आंखों में उसके लिए आंसू दिखाई दे रहे थे तो वह थी उसकी सेक्रेटरी नैना सबरवाल, जिसे संस्कारी के हत्यारे का बच निकला कबूल नहीं था।
अपने एम्प्लॉयर की मौत पर दुखी लड़की ने आखिरकार इंवेस्टिगेशन का जिम्मा प्राईवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले को सौंप दिया। अब ये विक्रांत की जिम्मेदारी थी कि वह सूर्यकांत संस्कारी के हत्यारे को बेनकाब कर के दिखाये।
पंखे के हुक से उल्टी लटकती लाश, खून से भरे तगाड़ में जलकर बुझ चुकी आग के अवशेष, स्टील के प्लेट में रखा मकतूल का दिमाग, हड्डियों को एक दूसरे के ऊपर रखकर बनाये गये चार क्रॉस और उनके बीच मौजूद एक निर्दोष सा दिखाई देने वाला चुकंदर! क्या था ये सब? क्या हत्यारा पुलिस को कुछ बताने की कोशिश कर रहा था? या फिर सब धोखा था, पुलिस को भटकाने के लिए कातिल की नायाब चाल थी? सवाल बहुतेरे थे, जवाब कोई नहीं। कत्ल दर कत्ल मामला सुलझने की बजाये निरंतर उलझता चला जा रहा था।
सौरभ सिंह एक ऐसा मैसेंजर था, जिसे इस्लामाबाद पहुंचकर अपने पास मौजूद जानकारी आगे किसी को सौंप देनी थी, प्रत्यक्षतः उस काम में कोई पंगा पड़ने की उम्मीद नहीं थी। मगर पंगा पड़कर रहा, और ऐसा पंगा जिसने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के धुरंधर जासूसों के होश उड़ा कर रख दिये। देखते ही देखते इस्लामाबाद की सड़कें उनके खुद के जासूसों और पुलिसकमिर्यों के लहू से रक्त रंजित होती चली गयीं।
हंसराज शर्मा बेहद चिड़चिड़ा, कंजूस और अव्वल दर्जे का खुंदकी शख्स था। साथ में बदकिस्मत भी। एक तरफ जहां बिस्तर पर पड़ा वह जिंदगी की आखिरी घड़ियां गिन रहा था, वहीं दूसरी तरफ पूरा कुनबा उसकी मौत की दुआएं मांग रहा था। कोई ऐसा भी था जिसे उसकी मौत तक इंतजार करना कबूल नहीं हुआ, जिसने वक्त से पहले उसे दुनियां से चलता कर दिया।
इंस्पेक्टर सतपाल सिंह के सामने अब सबसे पहला सवाल ये था कि बंद कमरे में कत्ल हुआ तो आखिर हुआ कैसे? अभी जांच शुरू ही हुई थी कि विशाल सक्सेना जैसे जादू के जोर से घटना स्थल पर पहुंच गया। आगे पनौती और सतपाल की जुगलबंदी ने ऐसा कहर ढाया कि कई लोग अर्श से फर्श पर जा गिरे।
वह शादीशुदा था। बीवी बेहद खूबसूरत थी, मगर बाजारू औरतों की सोहबत उसे कहीं ज्यादा पसंद थी। शराब शबाब और कबाब का अव्वल दर्जे का रसिया आकाश चौधरी बीवी कतरा भी था। जाने कितने दोस्तों को खून के आंसू रूला चुका था और आगे जाने कितने परिवार उसकी वजह से उजड़ने वाले थे, लिहाजा उससे खुंदक खाने वालों की कोई कमी नहीं थी। ऐसा खरदिमाग और गिरे हुए चरित्र का शख्स अगर एक रोज अपनी जान से हाथ धो बैठा तो क्या बड़ी बात थी? अब सवाल ये था कि बिल्ली के गले में घंटी बांधी तो आखिर बांधी किसने?
जिसे चाहा उसे खो दिया। जहां भी कदम पड़े तबाही और बर्बादी का मंजर आम हो गया। इंसानियत हैवानियत में बदल गई, सबकुछ एक ही झटके में स्वाहा हो गया।
अपने प्रारब्ध से जूझता ऐसा बद्किस्मत शख्स दुनियां में बस एक ही हो सकता था और वह था सिद्धांत सूर्यवंशी। जो एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ा था जिसकी कोई मंजिल नहीं थी।
डाईनैमिक रेजिडेंसी, यानि चलती-फिरती रिहाईश। 120 लग्जरी अपार्टमेंट्स वाली उस रेजिडेंसी का निर्माण एक बड़े और आधुनिक शिप पर किया गया था जो कि हर तरह की सुख सुविधाओं से लैस था। 25 दिसम्बर 2021 को डाईनैमिक रेजिडेंसी मुंबई बंदरगाह से समुद्री सफर पर रवाना हुआ, इरादा न्यू इयर का जश्न बीच समुद्र में सेलिब्रेट करने का था। मगर तभी जैसे पकी पकाई खीर में मक्खी पड़ गई। एक ऐसा खत सामने आया जिसमें उस शिप पर सवार चालीस लोगों में से अठारह को जान से मार देने की धमकी दी गई थी। फिर क्या था एक के बाद एक लाशें गिरनी शुरू हो गईं, ऐसे लोग मारे जाने लगे जिनकी किसी के साथ कोई दुश्मनी नहीं थी। घटनाएँ ऐसी कि एक वारदात का दूसरे के साथ कोई संबंध नहीं दिखाई दे रहा था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है, क्योंकि प्रत्यक्षतः वैसा कुछ घटित होने की कोई वजह नहीं थी।
श्यामली के कत्ल से शुरू हुई सिद्धांत की बदकिस्मती उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। दिल के भीतर दहकती बदले की आग उसके जुर्म की फेहरिश्त में निरंतर इजाफा करती जा रही थी। वह भटक रहा था, एक-एक कर के दुश्मनों का सफाया करता जा रहा था, मगर जब मंजिल पर पहुँचा तो ये देखकर हैरान रह गया कि प्रतिशोध के दावानल को बुझाने हेतु जितने भी गुनाह किये थे उनका हासिल एक ही झटके में जलकर स्वाहा हो गया।
अंधेर नगरी, एक ऐसा आइलैंड जो समुद्र के ‘कॉमन हेरीटेज़ ऑफ़ मैनकाइंड’ में स्थित था, जिसका मतलब ये बनता था कि वह समूचे विश्व की समुद्री सीमा से एकदम परे, जहां दुनियां का कोई भी कानून लागू नहीं होता था, स्थित था। कहने को वह एक टूरिस्ट प्लेस था मगर भारतीय इंटेलिजेंट ब्यूरो की इंवेस्टिगेशन बताती थी कि अंधेर नगरी पाकिस्तानी सरकार की एक ऐसी घटिया हरकत थी, जो कि आने वाले दिनों में भारत के लिए, खासतौर से मुंबई के लिए सिरदर्द साबित हो सकती थी। मगर विडम्बना ये थी कि आइलैंड के खिलाफ कोई कदम उठा पाना भारत सरकार के लिए संभव नहीं था।
कत्ल दर कत्ल होते जा रहे थे। इंवेस्टिगेशन ऑफिसर गरिमा देशपांडे की समझ में नहीं आ रहा था कि जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? घटनास्थल पर हर बार पुलिस को ब्लैक ऐंड व्हाईट प्रिंटर से निकाली गई एक तस्वीर मिलती थी, जिसके ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा होता था, ‘काजी सबकुछ कर सकता है‘। कौन था ये काजी? क्यों वह बेकसूर लोगों की लाशें बिछाता जा रहा था? क्या वारदात का सच में ‘काजी‘ के साथ कोई रिश्ता था, या उसके जरिये पुलिस को महज भरमाने की कोशिश कर रहा था हत्यारा?
साजिश के हवन कुंड में आहुतियाँ डाली जा रही थीं, लपटें निरंतर उग्र रूप लेती जा रही थीं, सब कुछ जल्दी ही स्वाहा हो जाने वाला था। अफसोस कि किसी को उस बात की भनक तक नहीं थी।
एक लॉ ग्रेजुएट लड़की के कत्ल से शुरू हुई ऐसी हौलनाक दास्तान, जिसे हत्यारे ने अपने तेज दिमाग के इस्तेमाल से बुरी तरह उलझा कर रख दिया। नतीजा ये हुआ कि हत्या की एक वारदात धीरे-धीरे अपराध की महागाथा में परिवर्तित होती चली गई।
RIGHT TIME TO KILL
अभिनेत्री सोनाली सिंह राजपूत ने पांच सालों बाद दिल्ली में कदम क्या रखा हंगामा बरप गया। बंगले में घुसते ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। पुलिस और मीडिया दोनों को शक था कि सोनाली का कत्ल उसके चाचा उदय सिंह राजपूत ने किया है, क्योंकि पांच साल पहले उसने भतीजी को खुलेआम जान से मारने की धमकी दी थी। लिहाजा कहानी परत दर परत उलझती जा रही थी। एक तरफ इंस्पेक्टर गरिमा देशपांडे कातिल की तलाश में जी जान से जुटी हुई थी तो वहीं दूसरी तरफ भारतन्यूज की इंवेस्टिगेशन टीम पुलिस से पहले हत्यारे का पता लगाने के लिए दृढसंकल्प थी। जबकि कातिल था कि एक के बाद एक लाशें बिछाता जा रहा था।
प्रतिघात
अंकुर रोहिल्ला दौलतमंद, आशिक मिजाज, बदनीयत शख्स था। उसकी निगाहें अपने ही किरायेदार की नाबालिग बेटी अफसाना पर टिकी हुई थीं। फिर एक रात लड़की अपने कमरे से गायब हो गयी। बाप को शक था कि बेटी के गायब होने में अंकुर का कोई न कोई हाथ जरूर था। वह फरियाद लेकर महा करप्ट पुलिसिये निरंकुश राठी के पास पहुंचा। राठी ने उसकी बेटी को खोजने के लिए उंगली भी नहीं हिलाई होती, अगरचे कि कंप्लेन एक दौलतमंद शख्स के खिलाफ नहीं होती। फिर क्या था निरंकुश राठी एक बार फिर अपने सपनों को साकार करने की कोशिश में जुट गया। उसे तो एहसास तक नहीं था कि आगे उसका पाला एक ऐसे शख्स से पड़ने वाला था जिसके बारे में कोई नहीं जानता कि वह कब क्या कर गुजरेगा?
मर्डर इन रूम नम्बर 108
सुधीर सिंघल निहायत घटिया, बदनीयत, दूसरों की अंटी पर निगाह रखने वाला, पच्चीस साल का - कामदेव सरीखा - ऐसा नौजवान था जो पैसों की खातिर किसी भी हद तक जा सकता था। तैंतालीस साल की औरत को अपने प्रेम जाल में फांस सकता था, नौजवान लड़कियों से मोहब्बत का दम भर कर, उनकी कमाई पर ऐश कर सकता था। प्रत्यक्षतः वह कईयों की जिंदगी में उथल-पुथल मचाये हुए था, कईयों को बर्बादी के कगार तक पहुंचा चुका था। ऐसे फसादी शख्स के साथ जो न हो जाता वही कम था।
जब नाश मनुज पर छाता है
बड़जात्या खानदान को श्राप था कि उनके परिवार की बेटियां जब भी किसी के साथ सात फेरे लेंगी अगले ही पल विधवा हो जायेंगी। कई पीढ़ियों से यही होता भी आ रहा था। ऐसे में जब अमृता बड़जात्या के विवाह की रस्म शुरू हुई, तो कुनबे को मिले श्राप के कारण वहां मौजूद परिजनों की धड़कनें बढ़ सी गईं। अगर कोई बेपरवाह था तो वह मानव शेरगिल था जिसके सिर पर सेहरा बंधा था या फिर अमृता थी जो शादी का जोड़ा पहने मंडप में बैठी थी। हथियारबंद पुलिसकर्मी किसी अनहोनी से निपटने के लिए एकदम तैयार खड़े थे, आने-जाने वालों पर तीखी निगाह रखी जा रही थी। तभी कुछ ऐसा घटित हो गया जो असंभव था, अकल्पनीय था।
एक गुमशुदा लड़की की तलाश में दिल्ली से गुलमर्ग पहुंचा पार्थ सान्याल नहीं जानता था कि आगे उसके साथ कैसे-कैसे वाकयात पेश आने वाले थे। एक तरफ पुलिस की शक भरी निगाहें उसपर टिकी थीं, तो दूसरी तरफ दहशतगर्दों की जमात उसकी लाश गिरा देने को कमर कसे बैठी थी। उनसे अलग एक तीसरा शख्स भी था जिसका किरदार उसकी समझ से बाहर था, जो कदम कदम पर उसका मुहाफिज बना हुआ था, वह कौन था ये बात भी किसी पहेली से कम नहीं थी। शह और मात का खेल जारी था। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, कहना मुहाल था।
दौलत और शोहरत दो ऐसी चीजें थीं, जिन्हें हासिल करने की खातिर सब-इंस्पेक्टर निरंकुश राठी किसी भी हद तक जा सकता था। स्याह को सफेद कर सकता था, बेगुनाह को फांस सकता था, मुजरिम के खिलाफ जाते सबूतों को नजरअंदाज कर सकता था। प्रत्यक्षतः वह ऐसा करप्ट पुलिसिया था जिसका नौकरी को लेकर कोई दीन ईमान नहीं था। ऐसे में एक रोज जब वह सड़क पर हुई एक मौत को अपने हक में करने की कवायद में जुटा, तो जल्दी ही यूं लगने लगा जैसे उसकी किस्मत रूठ गयी हो! जैसे ऊपरवाला उसके गुनाहों का हिसाब मांगने लगा हो।
संकल्प मिश्रा की हत्या के महज चार घंटों बाद पुलिस ने हत्यारे को धर दबोचा। आला-ए-कत्ल और घटना स्थल पर मिले सिगरेट के अधजले टुकड़े पर उसकी उंगलियों के निशान मौजूद थे। उसका आधार कार्ड सड़क पर पड़ा पाया गया था, जबकि मकतूल का लैपटाप उसके घर से बरामद हुआ था। ऐसे में उसका जेल चले जाना महज वक्त की बात थी। मगर विशाल सक्सेना उर्फ पनौती को अभियुक्त की सूरत में ऐसा बलि का बकरा नजर आ रहा था, जिसके मरने जीने की किसी को परवाह नहीं थी।
जन्नत में मचे ‘तांडव’ ने पूरे जिले को हिलाकर रख दिया। प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये, सरकारी मशीनरियां फौरन हरकत में आ गईं। बड़का बिहारी के दुश्मन जो कल तक खामोश बैठे थे, अचानक ही उसकी सत्ता हासिल करने के सपने देखने लगे। फिर खेल में इंट्री हुई छोटका बिहारी की, जो भाई के दुश्मनों के कल-पुर्जे तहस-नहस कर देने को दृढ़प्रतिज्ञ हो उठा! ऐसे में अश्विन पंडित और गजानन सिंह के होश तो उड़ने ही थे, क्योंकि छोटका के जीते जी उनमें से कोई भी सुरक्षित नहीं था।
साहिबे जायदाद शमशेर सिंह राणा अधेड़ावस्था के पार पहुंच चुका निहायत ही बदनीयत, ऐय्याश और मौकापरस्त शख्स था। अपनी जिस पुश्तैनी हवेली पर वह अकेला किसी प्रेत की तरह काबिज था, उसे शापित बताया जाता था। दूर दूर तक प्रचलित था कि हवेली में शाम ढलते ही मौत के साये विचरने लगते थे। रात के सन्नाटे में अजीब और दिल दहला देने वाली आवाजें सुनाई देती थीं। ऐसी भयानक और डरावनी जगह पर रहने वाले शख्स को एक रोज भटकती हुई रूहें अगर साक्षात दिखाई देने लगीं तो क्या बड़ी बात थी।
नागालैंड की सीमा से बाहर निकलकर अश्विन पंडित ने चैन की सांस ली। कोहिमा का खौफनाक मंजर उसके भीतर के जानवर को जाने कब का खत्म कर चुका था। अब उसका इरादा बिहार पहुंच कर एक आम और सुकुन भरी जिन्दगी बसर करने का था। उसने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था, कि बेगूसराय में कदम रखते ही वहां मौत का ऐसा तांडव शुरू होगा, जिसमें वह एक बार फिर से हथियार उठाने को मजबूर हो जायेगा।
वर्षा अवस्थी को पति की हत्या के इल्जाम में रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया था। पुलिस की निगाहों में यह ओपन एन्ड शट केस था, क्योंकि मुलजिम खुद कबूल कर रही थी कि वह अंजाने में रिवाल्वर का ट्रिगर दबा बैठी थी। एक तरफ पुलिस मामले को इरादतन की गई हत्या करार दे रही थी, तो दूसरी तरफ डीफेंस लाॅयर उसे गैरइरादतन हत्या का केस साबित करने में जुटा हुआ था। जबकि उन सब से अलग विशाल सक्सेना उर्फ पनौती का दावा था कि इरादतन या गैरइरादतन, वर्षा अवस्थी ने कभी कोई गोली नहीं चलाई थी।
रमेश भंडारी 60 साल का नाजुक तंदुरुस्ती वाला ऐसा शख्स था जिसका दिल पहले ही दो बड़े झटके झेल चुका था, ऐसे में तीसरी बार दिल का दौरा पड़ने से उसकी चल चल हो जाना बेहद स्वाभाविक बात थी, लाश भीतर से बंद दरवाजे को तोड़कर बरामद की गई थी , इसलिए शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। मगर हैरान कर देने वाली बात ये थी की हार्ट अटैक से जान गवाने वाला रमेश भंडारी अपने पीछे सुसाइड नोट छोड़कर मरा था।
अतुल जोशी दौलतमंद विधुर था। प्रत्यक्षतः उसका किसी के साथ कोई पंगा नहीं था। बावजूद इसके एक रात उसका कत्ल हो गया, जिसका इल्जाम आया विक्रांत गोखले के सिर! और यूं आया कि वह पनाह मांग गया। हर बात, हर सबूत उसके खिलाफ था। और उससे भी ज्यादा खतरनाक बात ये थी कि केस की इंवेस्टिगेशन आॅफिसर उसके हक में जाती कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थी।
कैच मी इफ यू कैन! एक ऐसा गेम, जो एक सनकी कातिल के दिमाग की उपज था। एक कत्ल वह पहले ही कर चुका था, आगे चार और लोग उसके निशाने पर थे। गेम के रूल्स के मुताबिक हर बार कत्ल सेे पहले वह इंस्पेक्टर सतपाल सिंह को एक ऐसी पहेली बताता था जिसमें उसके उस रात के शिकार की जानकारी छिपी होती थी। पहेली को वक्त रहते ना सुलझा सकने का मतलब था एक और लाश! फिर क्या हुआ? क्या हत्यारा अपने चैलेंज पर खरा उतर सका? या पनौती की जुगलबंदी में सतपाल ने उसे सींखचों के पीछे पहुंचा दिया?
पुलिस की निगाहों में शशांक यादव कई हत्याओं के लिए जिम्मेदार, ऐसा खतरनाक मुजरिम था जिसका मुकाम जेल की चार दीवारी के भीतर होना चाहिए था। ना तो पुलिस के पास उसके खिलाफ सबूतों की कोई कमी थी ना ही उसके बच निकलने की कोई उम्मीद! बावजूद इसके उसका दावा था कि वह बेगुनाह है, उसे फंसाया जा रहा है।
एमएलए गजानन सिंह से वह कुछ इस तरह प्रभावित हुआ कि सब इंस्पेक्टर की नोकरी छोड़कर उसका खास आदमी बन गया। नेता की खातिर उसने ढेरों अपराध किये, जिसमे ताजा तरीन कारनामा, एक निर्दलीय उम्मीदवार -जिसका जीत जाना तय था- का दिनदहाड़े किया गया कत्ल था। मामले ने कुछ यूं तूल पकड़ा की नेता के संभाले नहीं संभला। आखिरकार अश्विन पंडित गिरफ्तार कर लिया गया। मगर बात वहीं खत्म नहीं हुई, वह पुलिस कस्टडी से भाग निकला। नहीं जानता था आने वाले दिनों में उसके जीवन में कितना भयानक तूफान आने वाला था। उन भयानक पलों का उसे जरा भी एहसास होता तो पुलिस हिरासत से भागने की कोशीश हरगिज़ भी नहीं करता।
हैरतअंगेज हत्या वह वाराणसी से दिल्ली की फ्लाईट पर सवार हुई थी। उसे एहसास तक नहीं था कि अगले कुछ घंटों में उसके साथ क्या कुछ घटित होने वाला था। एयरपोर्ट के हाई सिक्योरिटी जोन में हत्यारे ने अपना काम कर दिखाया था। एयरपोर्ट पर लगे उम्दा क्वालिटी के सीसीटीवी कैमराज को भी हत्यारा अंधा बनाने में कामयाब हो गया। सीसीटीवी फुटेज में लड़की तड़.पकर जान गंवाती जरूर दिखाई दे रही थी, मगर हत्यारे का दूर दूर तक कहीं नामोनिशान तक नहीं था। वह लड़की के करीब फटके बिना क्योंकर उसकी जान लेने में कामयाब हो गया, यह बात पुलिस की समझ से परे थी। अब पुलिस के पास जांच के लिए तीन रास्ते थे। 1 लड़की ने आत्महत्या की थी। 2 वह इत्तेफाकन अपनी जान से हाथ धो बैठी थी। 3 उसका कत्ल किया गया था। मगर तीसरी बात को पुलिस खातिर में लाने को तैयार नहीं थी।
एक रात की कहानी! एक ऐसी रात जो किसी जलजले से कम नहीं थी। जिसने कई लोगों को खून के आंसू रोने पर मजबूर कर दिया। कईयों की सत्ता हिलाकर रख दी। कुछ को मौत की नींद सुला दिया तो कईयों को जेल की काल कोठरी के पीछे पहुंचा दिया! और इतने भयंकर बवाल की मुख्तसर सी वजह ये थी कि पुलिस ने एक डैड बाॅडी की शिनाख्त के लिए विशाल सक्सेना उर्फ ‘पनौती‘ को काॅल कर लिया था।
शहर के मशहूर बिजनेसमैन साहिल भगत पर इल्जाम था कि उसने अपनी बेवफा बीवी को मौत के घाट उतार दिया था। कत्ल के बाद पुलिस ने उसे मौकायेवरदात से रंगे हाथों गिरफ्तार किया था। सारे सबूत सारे गवाह उसके खिलाफ थे। कहीं से उसके बच पाने की कोई उम्मीद नहीं थी। पहेली सुलझने की बजाय निरंतर उलझती ही जा रही थी। रंगे हाथों कातिल को गिरफ्तार कर चुकने के बावजूद पुलिस उसे जेल भेजने में कामयाब नहीं हो पाई। कातिल इतना शातिर था कि कत्ल के बाद शक की सूई जबरन किसी और की तरफ मोड़ देता था। उसके पीछे कई मास्टरमाईंड काम कर रहे थे, जो योजनायें बनाते थे, कातिल के लिए कत्ल का वक्त और सहूलियत के साथ-साथ उसके बचाव के लिए भूमिका तैयार करते थे। उनके पास टैक्नोलाॅजी थी, हैकर था और हत्यारा था।
शनाया मेहता एक ऐसी हाईप्रोफाइल काॅलगर्ल थी जिसके कद्रदानों की कोई कमी नहीं थी। उसके चाहने वालों में बड़े वकील से लेकर बिजनेसमैन और एमपी तक के नाम शुमार थे। ऐसी लड़की जब एक रोज अपने फ्लैट में जलकर मर गयी तो हंगामा तो बरपना ही था। लिहाजा जब आशीष गौतम ने उसकी मौत की असली वजह जानने की कोशिश की तो देखते ही देखते लाशों का ढेर लगता चला गया।
सब-इंस्पेक्टर नरेश चैहान पर इल्जाम था कि उसने दो महिलाओं की बड़े ही बर्बरता पूर्ण ढंग से, गला घोंटकर, ना सिर्फ हत्या की थी, बल्कि हत्या से पहले उन्हें जमकर नोंचा-खसोटा भी था। उसे सबसे ज्यादा डैमेज करने वाली बात ये थी कि गिरफ्तारी के वक्त वो एक ऐसी यूनीफाॅर्म पहने था जो मरने वाली दोनों महिलाओं के खून से रंगी हुई थी। पुलिस का दावा था कि उनके पास मुलजिम के खिलाफ सिक्केबंद सबूत थे, लिहाजा उसका जेल जाना महज वक्त की बात थी। मगर प्राइवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले को पुलिस की राय से इत्तेफाक नहीं था।
नीलेश तिवारी एक लेखक था! ऐसा लेखक जो अपने लेखन से मिलने वाली वाहवाही का लुत्फ नहीं उठा सका। उसकी पहली रचना ‘आवारा लेखक‘ प्रकाशित क्या हुई मानो उसकी जिंदगी को ग्रहण लग गया। अगले ही रोज वो अपने फ्लैट के बाथरूम में मरा हुआ पाया गया। फिर एक के बाद एक हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ वो तो जैसे रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था। पुलिस हैरान थी, परेशान थी! कातिल को पकड़ना तो दूर रहा, पुलिस हत्यारे का मकसद तक नहीं तलाश कर पा रही थी....!